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★समुद्रगुप्त का जीवन परिचय★
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किसी भी देश की उन्नति और समृदधि के लिए राजनैतिक स्थिरता तथा आन्तरिक सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है । इसके अभाव में साहित्य , संस्कृति , उदयोग तथा ललित कलाओं का हास होने लगता है । मौर्य साम्राज्य के बाद भारत के भिन्न - भिन्न भागों पर एक लम्बे समय तक अनेक छोटे - बड़े राजाओं का आधिपत्य था । सभी शासकों के स्वार्थ अलग थे और उनकी कामनाएँ अलग थी । उस समय ईर्ष्या, द्वेष , अभिमान और पारस्परिक कलह का बोलबाला था । ऐसे ही समय में चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र समुद्रगुप्त मगध का सम्राट बना । समुद्रगुप्त की माता का नाम कुमार देवी था ।
यह अत्यन्त उदार और करुण स्वभाव की महिला थीं । इस काल का इतिहास जानने के मुख्य स्रोत स्तम्भ है। प्रयाग स्तम्भ के अनुसार समुद्रगुप्त बाल्यावस्था से ही विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न था । वह साहस और वीरता की प्रतिमूर्ति था । यही कारण था कि चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने जीवनकाल में उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था ।
समुद्रगुप्त का बाल्यकाल माता कुमार देवी जैसी उदार एवं कर्तव्यनिष्ठ महिला के संरक्षण में व्यतीत हुआ । सत्यवादिता , न्यायप्रियता जनहितकामना राष्ट्रप्रेम साहस , परोपकार तथा सुख और दुख को समान भाव से स्वीकार करने की शिक्षा उसे बाल्यावस्था से ही माता से मिली थी जो आगे चलकर उसकी जीवन का अंग बन गयी । बचपन से ही समुद्रगुप्त की यह अभिलाषा थी कि सगस्त भारतभूमि को एकता के सूत्र में बांधकर उसे एक सुदृढ राष्ट्र का स्वरूप प्रदान किया जाये । यही कारण है कि समुद्रगुप्त ने भारत की शक्ति को खण्डित करने वाली देशी व विदेशी ताकतों को नष्ट करने का संकल्प लिया।
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भारत की राष्ट्रीय एकता की स्थापना हेतु समुद्रगुप्त ने विजय यात्रा प्रारम्भ की । प्रयाग के 'अशोक स्तम्भ ' में समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का विस्तृत विवरण मिलता है । सबसे पहले उसने उत्तर भारत के राजाओं को परास्त किया और उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया । उसके साहस और पौरुष की चर्चा होने लगी । अपनी सेना का संचालन वह स्वयं करता था और एक सैनिक की भाँति युद्ध में भाग लेता था । धीरे - धीरे उसने पूर्व में बंगाल तक अपना राज्य फैलाया । पूर्वी तट के द्वीपों पर आक्रमण के लिए उसने नौसेना का गठन किया ।
राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए दक्षिण राज्यों को एक केन्द्रीय शासन के अधीन लाना आवश्यक था । प्रयाग स्तम्भ में इसका उल्लेख है । इस यात्रा के लिए उसे अत्यन्त भयावह और बीहड जंगलों को पार करना पड़ा । कहीं पहाड़ लाँघने पड़े , कहीं नदियों पर पुल बाँधने पड़े और कहीं हाथियों से ही पुल का काम लेना पड़ा । समुद्रगुप्त ने मध्य प्रदेश से प्रवेश कर दक्षिण कौशल की राजनगरी " श्रीपु ” पर घेरा डाला । इसके बाद उसने बीहड़ जंगली प्रदेश " महाकान्तार " पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की । पल्लव राजा को छोडकर सभी ने उसके सामने आत्मसमर्पण कर दिया । पल्लव राजा विष्णुगोप की हाथियों की सेना अत्यन्त शक्तिशाली थी , लेकिन समुद्रगुप्त के आक्रमण की आँधी को वह भी नहीं रोक सकी और अन्त में उसे भी आत्मसमर्पण करना पड़ा । सीमान्त प्रदेश के पाँच तथा नौ अन्य गणराज्यों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली । इसके पश्चात आर्यावर्त , विध्य क्षेत्र , मध्य भारत और कलिंग से लगे जंगली प्रदेशों के अठारह अटवी शासकों को भी समुद्रगुप्त ने परास्त किया । कहते हैं कि समुद्रगुप्त ने इन अभियानों में तीन वर्ष में तीन हजार मील की यात्रा की थी ।
समुद्रगुप्त अत्यन्त दूरदर्शी शासक था । वह जानता था कि एक केन्द्र से सुदूर दक्षिण भारत के राज्यों की व्यवस्था करना कठिन होगा , इसलिए दक्षिण भारत के शासकों को परास्त करने के पश्चात् उसने अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया और उनका राज्य अनुग्रहपूर्वक उन्हीं को वापस कर दिया । इस प्रकार लगभग सम्पूर्ण भारत पर समुद्रगुप्त का अधिकार हो गया । लगभग समस्त भारत पर विजय पताका फहराने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया । उस समय हिन्दू राजाओं में यह प्रथा थी कि जब कोई सम्राट दिग्विजय करता था तभी वह यह यज्ञ किया करता था इस यज्ञ में एक घोड़ा छोड़ा जाता था और सेना उसके पीछे चलती थी । यदि कोई घोडा पकड लेता था तो राजा उससे युद्ध करता था अन्यथा जब घोड़ा विभिन्न राज्यों की सीमाओं से होकर वापस आता था तब यह यज्ञ पूर्ण माना जाता था और राजा दिग्विजयी समझा जाता था । समुद्रगुप्त ने यह यज्ञ बड़ी धूमधाम से किया । इस अवसर पर दान देने के लिए उसने सोने की मोहरें विशेष रूप से दलवायीं । इन पर अश्वमेध के घोड़े की आकृति तथा " अश्वमेध पराक्रमः " शब्द अंकित था । इस यज्ञ के अवसर पर समुद्रगुप्त को " महाराजाधिराज घोषित किया गया । इस यज्ञ का मुख्य लक्ष्य समस्त भारत पर एकछत्र राज्य की स्थापना था ।
समुद्रगुप्त की शासन व्यवस्था इतनी सुदृढ़ थी कि उसके लगभग पचास ( 50 ) वर्ष के शासनकाल में किसी भी क्षेत्र में न अशान्ति हुई और न किसी ने साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का साहस किया । समुद्रगुप्त शासन संचालन में सद्व्यवहार , न्याय , समता और लोक कल्याण पर अधिक ध्यान देता था । उस समय खेती और व्यापार उन्नत दशा में थे । नहरों और मार्गों का जाल - सा बिछा था । भारत - भूमि धन - धान्य से परिपूर्ण थी ।
गुप्त वंश के सभी राज्य हिन्दू धर्म के अनुयायी थे । वे सब परम वैष्णव थे । समुद्रगुप्त अन्य धर्मों के विकास तथा उत्थान के लिए समान अवसर तथा सहायता प्रदान करता था । समुद्रगुप्त ने लंका के राजा को गया में " महाबोधि संघराम ' नामक विहार बनवाने की आज्ञा दी थी । इस प्रकार उसके शासनकाल में पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता थी । समुद्रगुप्त की उदारता की प्रशंसा बौद्ध भिक्षु बसुबन्धु ने भी की है ।
समुद्रगुप्त न केवल शस्त्रों में ही कुशल था वरन् शास्त्रों में भी उसका लगाव था । साहित्य और संगीत में उसकी बड़ी रुचि थी । वह स्वयं एक अच्छा लेखक और कवि था । वह साहित्यकारों और कवियों का आश्रयदाता था । उसका मन्त्री हरिषेण भी उच्चकोटि का कवि था । कहते हैं , बौद्ध विद्वान बसुबन्धु को भी समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था । समुद्रगुप्त वीणा बजाने में बड़ा निपुण था । प्रयाग के स्तम्भ तथा सिक्कों पर अंकित वीणा से इसकी पुष्टि होती है । यह समुद्रगुप्त की विलक्षण प्रतिभा ही थी कि वह ' व्याच घराक्रम की उपाधि से सुशोभित था ।
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समुद्रगुप्त ने लगभग पचास वर्ष तक सुख और शान्ति से शासन चलाया । प्रयाग स्तम्भ से स्पष्ट है कि वह एक अखिल भारतीय साम्राज्य की कल्पना से प्रेरित था । अपनी इसी अदम्य इच्छा - शक्ति और अपार पौरुष के बल पर वह एक प्रबल केन्द्रीय राजसत्ता की स्थापना कर सका । सेनापति और सम्राट के रूप में तेजस्वी समुद्रगुप्त में ऐसे भी अनेक गुण थे जो शान्तिपूर्ण जीवन के लिए अधिक अनुकूल थे । प्राप्त सिक्कों और अभिलेखों से हमारे समक्ष एक ऐसे वज्रदेह , शक्तिशाली सम्राट की मूर्ति खड़ी होती है जिसने देश को धन - धान्य से परिपूर्ण किया । तत्कालीन बौद्धिक एवं सांस्कृतिक सम्पन्नता ने उस नवयुग का सूत्रपात किया जिसमें पाँच सदियों से छिन्न - भिन्न हुई राजनीतिक राष्ट्रीय एकता पुनः स्थापित हुई "इसे भारत का स्वर्णयुग भी कहा जाता है" ।
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