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swami dayanand saraswati; मूलशंकर के पिता का नाम कर्षन जी त्रिवेदी और माता का नाम शोभाबाई था । उनके पिता की इच्छा थी कि उनका पुत्र पढ़ - लिखकर सफल बने और जमींदारी तथा लेन - देन में उनकी मदद करे आइये जानें विस्तारपूर्वक In hindi

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                  ★महर्षि दयानन्द★

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शिवरात्रि का पर्व है । गाँव की सीमा पर स्थित शिवालय में आज भक्तो की बहुत भीड़ है । दीपकों के प्रकाश से सारा देवालय जगमगा रहा है । भक्तों की मण्डली भाव - विभोर होकर भजन - कीर्तन में निमग्न है । लोगों का विश्वास है कि आज दिन भर निराहार रहकर रात्रि जागरण करने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है । कुछ समय तक भजन - कीर्तन का क्रम चलता रहा परन्तु जैसे - जैसे रात्रि बीतने लगी लोगों का उत्साह ठंडा पड़ने लगा । कुछ उठकर अपने घरों को चले गए , जो रह गए वे भी अपने आपको सँभाल न सके । आधी रात होते - होते वहीं सो गए । ढोल - मंजीरे शान्त हो गए । निस्तब्ध सन्नाटे में एक बालक अभी भी जाग रहा था । उसकी आँखों में नींद कहाँ अपलक दृष्टि से वह अब भी शिव - प्रतिमा को निहार रहा था । तभी उसकी दृष्टि एक चूहे पर पड़ी जो बड़ी सतर्कतापूर्वक इधर - उधर देखते हुए शिवलिंग की ओर बढ़ रहा था शिवलिंग के पास पहुँचकर पहले तो वह उस पर चढ़ायी गयी भोग की वस्तुओं को खाता रहा , फिर सहसा मूर्ति के ऊपर चढ़कर आनन्दपूर्वक घूमने लगा जैसे हिमालय की चोटी पर पहुँच जाने का गौरव प्राप्त हो गया हो ।

पहले तो बालक का मन हुआ कि वह चूहे को डराकर दूर भगा दे परन्तु दूसरे ही क्षण उनके अन्तर्मन को एक झटका सा लगा , श्रद्धा और विश्वास के सारे तार झनझनाकर जैसे एक साथ टूट गए । वह सोचने लगा कि ये कैसे ईश्वर हैं जो अपने ऊपर से एक निर्बल चूहे तक को हटा नहीं सकते इस विचार ने बालक के जीवन - दर्शन को ही बदल डाला । उसने ईश्वर की खोज का संकल्प लिया । यह बालक था मूलशंकर । आगे चलकर यही बालक महर्षि दयानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।


 मूलशंकर के पिता का नाम कर्षन जी त्रिवेदी और माता का नाम शोभाबाई था । उनके पिता की इच्छा थी कि उनका पुत्र पढ़ - लिखकर सफल बने और जमींदारी तथा लेन - देन में उनकी मदद करे । परन्तु मूलशंकर का मन अध्ययन और एकान्त चिन्तन में लगता था । मूलशंकर की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई । कुशाग्र बुद्धि तथा विलक्षण स्मरण शक्ति के कारण थोड़े ही दिनों में उन्हें संस्कृत के बहुत से स्तोत्र - मन्त्र और श्लोक याद हो गए । जब वे सोलह वर्ष के थे तभी उनके जीवन में दो ऐसी घटनाएँ घटीं जिसने मूलशंकर के मन में वैराग्य - भावना को दृढ़ बना दिया । उनकी छोटी बहन की हैजा से मृत्यु हो गई । मूलशंकर डबडबायी आँखों से अपनी प्यारी बहन को मृत्यु के मुँह में जाते असहाय देखते रहे । उन्हें लगा कि जीवन कितना निरुपाय है । संसार कितना मिथ्या !तीन वर्ष पश्चात सन् 1843 में मूलशंकर के चाचा की मृत्यु हो गई । मूलशंकर को चाचा से अपार स्नेह था परन्तु मृत्यु ने आज उनके इस स्नेह - बन्धन को भी तोड़ दिया । संसार की निस्सारता ने एक बार फिर उन्हें झकझोर दिया । वैराग्य का नन्हा पौधा बढ़कर एक विशाल वृक्ष बन गया ।


 उन्होंने उसी समय दृढ़ संकल्प किया कि मैं घर - गृहस्थी के बन्धन में नहीं पढूंगा और एक दिन मूलशंकर घर के सभी लोगों की दृष्टि बचाकर चुपचाप घर से निकल पड़े । इस समय उनकी अवस्था मात्र 21 वर्ष की थी । चलते - चलते कई दिनों के बाद वे सायले ( अहमदाबाद ) गाँव में पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक ब्रह्मचारी जी से दीक्षा ग्रहण की और अब वे मूलशंकर से शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी बन गये । कुछ दिन यहाँ रह कर वे साधुओं से योग क्रियाएँ सीखते रहे किन्तु अनन्त सत्य की खोज में निकले शुद्ध चैतन्य का मन सायले ग्राम में बंधकर न रह सका । युवा संन्यासी की ज्ञान पिपासा उन्हें नर्मदा के किनारे - किनारे दूर तक ले गयी । एक दिन उनकी भेंट दण्डी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से हुई । वे बहुत विद्वान एवं उच्च कोटि के संन्यासी थे । शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी उनके पास पहुँच गये और उनसे संन्यास की दीक्षा देने का अनुरोध किया । पहले तो गुरु ने अपने शिष्य की युवावस्था को देखते हुए संन्यास की दीक्षा देने से इनकार किया किन्तु दूसरे ही क्षण उन्होंने शुदध चैतन्य ब्रह्मचारी की आँखों में झाँककर उनकी वैराग्य भावना को पहचान लिया । उन्होंने विधिवत् उन्हें संन्यास की दीक्षा दी । अब मूलशंकर शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी से संन्यासी बनकर दयानन्द सरस्वती हो गये । 

दीक्षा के उपरान्त स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपना सारा समय विद्याध्ययन और योगाभ्यास में लगाया अहंकार को त्यागकर शिष्य भाव से उन्हें जिससे जो कुछ भी प्राप्त हुआ उसे बड़ी कृतज्ञता से ग्रहण किया।

● स्वामी दयानन्द सरस्वती ने द्वारिका के स्वामी महात्मा शिवानन्द से योग विद्या का ज्ञान प्राप्त किया।

मधुरा के स्वामी विरजानन्द के विमल यश और पाण्डित्य की चर्चा सुनकर वे मधुरा जा पहुंचे । स्वामी विरजानन्द के चरणों में बैठकर दयानन्द ने 'अष्टाध्यायी महाभाष्य' वेदान्त सूत्र'आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया । जब वे पढ़ने बैठते तो तर्कयुक्त प्रश्नों की झड़ी लगा देते थे । उनकी लगन और निष्ठा से प्रभावित होकर गुरु विरजानन्द ने कहा - 

दयानन्द! आज तक मैने सैकड़ों विद्यार्थियों को पढ़ाया पर जैसा आनन्द और जो उत्साह मुझे तुम्हें पढ़ाने में मिलता है वह कभी नहीं मिला । तुम्हारी तर्कशक्ति , अप्रतिम और स्मरणशक्ति अलौकिक है । तुम्हारी योग्यता . तुम्हारी प्रतिभा का लाभ देश के जन को मिले यही मेरी आकांक्षा और शुभकामना है । 


स्वामी दयानन्द ने गुरु की इस आकांक्षा को जीवन भर गाँठ बाँधकर रखा । उन्हें गुरु के वे आदेश वाक्य भी प्रतिक्षण सुनायी देते रहे जो उन्होंने विद्याध्ययन की समाप्ति पर उन्हें अपने आश्रम से विदा करते समय कहे थे । उनका आदेश था - वत्स दयानन्द , संसार से भागकर जंगलों में जाकर एकान्त साधना करने में संन्यास की पूर्णता नहीं है । संसार के बीच रह कर दीन - दुखियों की सेवा करना , अशान्त जीवन में शान्ति का विस्तार करते हुए दोष मुक्त जीवन को बिताना ही सच्ची साधु प्रवृत्ति है । जाओ , समाज के बीच रहकर अनेक कुसंस्कारों और अधविश्वासों से खण्ड - खण्ड हो रहे समाज का उधार करो , उसे नयी चेतना दो , नया जीवन दो ।


स्वामी दयानन्द ने आडम्बरों का जीवन भर विरोध किया । इस संदर्भ में उन्होंने एक महान धर्मग्रन्थ ' सत्यार्थ प्रकाश ' लिखा । जिसमें धर्म , समाज , राजनीति , नैतिकता एवं शिक्षा पर उनके संक्षिप्त विचार दिये गये हैं । स्वामी दयानन्द के दृष्टिकोण एवं जीवन दर्शन को संक्षेप में इस उद्धरण से समझा जा सकता है।

● कोई भी सद्गुण सत्य से बड़ा नहीं है । कोई भी पाप झूठ से अधम नहीं है । कोई ज्ञान भी सत्य से बड़ा नहीं है इसलिए मनुष्य को सदा सत्य का पालन करना चाहिए ।

धर्म के नाम पर मानव समाज का भिन्न - भिन्न सम्प्रदायों में बँटा होना उन्हें ईश्वरीय नियम के प्रतिकूल लगता था । लोगों को उपदेश देते हुए प्रायः कहा करते थे

परमात्मा के रचे पदार्थ सब प्राणी के लिए एक से हैं । सूर्य और चन्द्रमा सब के लिए समान प्रकाश देते हैं । वायु और जल आदि वस्तुएँ सबको एक सी ही दी गयी हैं । जैसे ये पदार्थ ईश्वर की ओर से सब प्राणियों के लिए एक से हैं और समान रूप से लाभ पहुँचाते हैं वैसे ही परमेश्वर प्रदत्त धर्म भी सब मनुष्यों के लिए एक ही होना चाहिए । 

भारतीय समाज को वेद के आदर्शों के अनुरूप लाने एवं भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने हेतु उन्होंने 1875 में आर्य समाज की मुम्बई में स्थापना की । आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य सभी मनुष्यों के शारीरिक , आध्यात्मिक और सामाजिक स्तर को ऊपर उठाना था ।

स्वामी दयानन्द ने प्राचीन संस्कृति और सभ्यता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया । उन्होंने वेदों और संस्कृत साहित्य के अध्ययन पर बल दिया । तत्कालीन समाज में महिलाओं की गिरती हुई स्थिति का कारण उन्हें उनका अशिक्षित होना लगा । फलतः उन्होंने नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया ।

स्वामी दयानन्द ने पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुरीतियों का घोर विरोध किया । उन्होंने विधवा विवाह और पुनर्विवाह की प्रथा का समर्थन किया । समाज में व्याप्त वर्ण - भेद , असमानता और छुआ - छूत की भावना का भी खुलकर विरोध करते हुए कहा -

" जन्म से मनुष्य किसी जाति विशेष का नहीं होता बल्कि कर्म के आधार पर होता है "। 

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स्वामी दयानन्द ने हिन्दी भाषा को राज भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का पूरा प्रयास किया । यद्यपि वे संस्कृत के विद्वान थे किन्तु उन्होंने हिन्दी में पुस्तकें लिखीं । संस्कृत भाषा और धर्म को ऊँचा स्थान दिलाने के लिए उन्होंने हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठित किया । 

"कोई चाहे कुछ भी करे , देशी राज्य ही सर्वश्रेष्ठ है । विदेशी सरकार सम्पूर्ण रूप से लाभकारी नहीं हो सकती , फिर चाहे वे धार्मिक पूर्वाग्रह और जातीय पक्षपात से मुक्त तथा पैतृक न्याय और दया से अनुप्राणित ही क्यों न हो "।

                              - दयानन्द सरस्वती ( सत्यार्थप्रकाश )                    

स्वामी दयानन्द समाज सुधारक और आर्य संस्कृति के रक्षक थे । मनुष्य मात्र के कल्याण की कामना करने वाले महर्षि दयानन्द का जीवनदीप सन् 1883 की कार्तिक अमावस्या को सहसा बुझ गया किन्तु उस दीपक का प्रकाश उनके कार्यों और विचारों के रूप में आज भी फैला है ।


स्वामी दयानन्द के विषय में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था - "स्वामी दयानन्द १६ वीं शताब्दी में भारत के पुनर्जागरण के प्रेरक व्यक्ति थे । उन्होंने भारतीय समाज लिए एक ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जिस पर चलकर भारतीय समाज समुन्नत किया जा सकता है । "

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