★ महर्षि अरविन्द ★
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बहुत समय पहले एक अहंकारी और आडम्बरी राजा ने एक सभा बुलवाई । सभा में उस राजा ने प्रश्न किया कौन महान है . ईश्वर या मैं ? प्रश्न अद्भुत था , लम्बे और उलझन भरे मौन के बाद विद्वानों में एक वृद्ध ने सिर झुकाकर आदर सहित कहा . " महाराज आप सबसे महान हैं । " इस बात पर सभा में असहमति के हल्के स्वर उठने लगे । इस पर विद्वान ने स्पष्ट किया , आप हमें अपने राज्य से निकाल सकते हैं . पर ईश्वर नहीं क्योंकि उसका तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर राज्य है उससे अलग कोई कहाँ जा सकता है । सब कुछ वहीं है । "
श्री अरविन्द द्वारा कहे गए ईश्वर ही सब कुछ है इस ज्ञान ने राजा के जीवन की दिशा बदल दी । वे अरविन्द के अनुयायी हो गए ।
अरविन्द का जन्म 15 अगस्त सन् 1872 ई ० में कोलकाता में हुआ । इनके पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष और माता स्वर्णलता देवी थीं । पिता कृष्णधन घोष पूरी तरह पाश्चात्य विचारधारा में रंगे हुए थे जिसके कारण उन्होंने निश्चय किया कि वे अरविन्द को भी अंग्रेजी शिक्षा दिलाएंगे और किसी भी प्रकार के भारतीय प्रभाव से मुक्त रखेंगे । पिता ने अंग्रेज बनो की विचारधारा के साथ पाँच वर्ष की उम्र में ही अरविन्द को पढ़ाई के लिए दार्जिलिंग भेज दिया । दो वर्ष बाद उन्हें शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया । अरविन्द के माता - पिता अध्यापकों को यह निर्देश देते हुए भारत लौट आए कि किसी भी दशा में अरविन्द को भारतीयों से न मिलने दिया जाय । इतने प्रतिबन्धों के बावजूद यह व्यक्ति आगे चलकर एक क्रांतिकारी , एक स्वतंत्रता सेनानी एक महान भारतीय राजनैतिक , दार्शनिक तथा वैदिक पुस्तकों का व्याख्याता बना ।
इंग्लैण्ड में अरविन्द ने उच्च शिक्षा प्राप्त की । वहाँ रहते हुए उनके दिमाग में अपने देश की स्वतंत्रता का विचार उथल - पुथल मचाने लगा । बचपन से देश से बाहर रहने के कारण वे भारतीयों के बारे में जानने को उत्सुक होने लगे । उन्होंने भारत लौटने का निश्चय किया ।
यह वर्ष 1893 की घटना है जब अरविन्द ने भारत लौटने का निश्चय किया । यह वर्ष भारत में नव जागरण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था ।
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इसी वर्ष- ( 1893) में
● स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन के मंच से भारतीय संस्कृति के गौरव का उद्घोष किया ।
● लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने के लिए गणपति उत्सव का शुभारम्भ किया।
● एनी बेसेण्ट भारत आयीं और उन्होंने भारतवासियों में अपने प्राचीन धर्म के प्रति स्वाभिमान जगाने का प्रयास प्रारम्भ किया।
● गाँधी जी रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका पहुंचे ।
यह अद्भुत संयोग था कि इसी वर्ष श्री अरविन्द घोष भारत वापस लौटे । इस समय उनकी आयु इक्कीस वर्ष थी । उन्हें न पश्चिमी देशों की सभ्यता और न ही धन - धान्य की लालसा सम्मोहित कर पाई उनके अन्दर एक ओर अपने देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने की आकुलता थी , दूसरी ओर भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने की तीव्र लालसा । भारत लौटने पर नवयुवक अरविन्द बड़ौदा ( बड़ोदरा ) महाराज के आग्रह पर वहाँ के एक कालेज में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य करने लगे । जिस समय वे शिक्षा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त कर रहे थे उस समय तक भारतीय राजनीति में भी उनका हस्तक्षेप शुरू हो गया था । वे लेखन द्वारा अपने विचारों को प्रकट करने लगे । इसके लिए उन्होंने कई भारतीय भाषाएँ सीखीं ।
सन् 1901 में उनका विवाह मृणालिनी से हुआ । मृणालिनी को लिखे पत्रों में अरविन्द के विचारों की झलक मिलती है । उन्होंने लिखा था-
" दूसरे लोग भारत को देश के बजाय एक जड़ पदार्थ , खेत - खलिहान , मैदान , जंगल और नदी के अतिरिक्त कुछ नहीं देखते . पर मुझे तो वे अपनी माँ के रूप में दिखाई देता है"
वास्तव में अरविन्द के लिए मातृभूमि ही सब कुछ थी । उन्हें यह बिल्कुल सहन नहीं होता था कि मातृभूमि गुलामी के बंधनों में जकड़ी यातना सह रही हो । वे जानते थे कि लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग अत्यन्त टेढ़ा - मेढा , कँटीला और खतरों से भरा है ? फिर भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे अपने जीवन को भी न्योछावर करने को तैयार थे ।
लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अरविन्द का पहला कदम था लेखन के द्वारा जनमत तैयार करना । उन्होंने विभिन्न पत्रों के लिए लिखना प्रारम्भ कर दिया । बाद में उन्होंने ' वन्दे मातरम् ' नामक पत्र का संपादन भी किया । वे चाहते थे कि भारत के युवा उस समय सिर्फ भारत माँ के बारे में ही सोचे बाकी सब कुछ भुला दें । उन्होंने लिखा ,
" हमारी मातृभूमि के लिए ऐसा समय आ गया है अब उसकी सेवा से अधिक प्रिय कुछ नहीं । अगर तुम अध्ययन करो तो मातृभूमि के लिए करो । अपने शरीर मन और आत्मा को उसकी सेवा के लिए प्रशिक्षित करो ताकि वे समृद्ध हो , कष्ट सहो ताकि वे प्रसन्न रह सके ।"
उन्होंने युवाओं को काम करना सीखने के लिए अवसर का लाभ उठाने का आह्वान किया । उन्होंने उनसे कार्य , ईमानदारी , अनुशासन , एकता , धैर्य और सहिष्णुता द्वारा निष्ठा विकसित करने को कहा ।
1908 में उन्होंने बंगाल के क्रान्तिकारियों से सम्पर्क किया और सक्रिय रूप से क्रान्तिकारी गतिविधियों शामिल हो गए । अरविन्द की क्रान्तिकारी गतिविधियों से भयभीत होकर अंग्रेजों ने 1908 में उन्हें और उनके भाई वारीन घोष को ' 'अलीपुर बम केस ' के मामले में गिरफ्तार कर लिया । अलीपुर जेल में उन्हें दिव्य अनुभूति भाई जिसे उन्होंने ' 'काशकाहिनी ' नामक रचना में व्यक्त किया । जेल में रहते हुए उन्होंने अपने क्रान्तिकारी विचारों को कविताओं में स्पष्ट किया । जेल से छूटकर अरविन्द ने अंग्रेजी भाषा में कर्मयोगी तथा बंगला भाषा धर्म नामक पत्रिकाओं का संपादन किया ।
1912 तक श्री अरविन्द ने देश की सक्रिय राजनीति में भाग लिया । चालीस वर्ष की आयु के बाद उनकी अध्ययन रूचि पूर्णतया गीता , उपनिषद तथा वेदों की ओर हो गयी । उन्होंने पूर्व तथा पश्चिम के दर्शनशास्त्रों का अध्ययन कर अनेक पुस्तकें लिखी । भारतीय संस्कृति उनका प्रिय विषय था । भारतीय संस्कृति के बारे में उन्होंने 'फाउण्डेशन आफ इण्डियन कल्वर ' तथा ' एक डीफेन्स आफ इण्डियन कल्वर ' नामक प्रसिद्ध रचनाएँ प्रस्तुत की । उनके द्वारा रचा गया काव्य ' सावित्री ' साहित्य जगत की अनमोल धरोहर है ।
उन्होंने 1923 से लेकर अपने निर्वाण ( 1950 ) तक श्री अरविन्द साधना और तपस्या में लगे रहे । सार्वजनिक सभाओं तथा भाषणों से दूर वे पॉण्डिचेरी में अपने आश्रम में मानव कल्याण के लिए निरन्तर चिन्तन शील रहे । वर्षों की तपस्या के बाद उनकी अनूठी कृति ' लाइफ डिवाइन ( दिव्य जीवन ) ' प्रकाशित हुई । इस पुस्तक की गणना विश्व की महान कृतियों में की जाती है ।
श्री अरविन्द अपने देश और संस्कृति के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे । पॉण्डिचेरी में स्थित आश्रम उनकी तपोभूमि थी । यहीं पर उनकी समाधि बनाई गई । यह आश्रम आज भी अध्यात्मज्ञान का तीर्थस्थल माना जाता है जहाँ भारत ही नहीं वरन विश्व के अनेक देशों के लोग अपनी ज्ञान - पिपासा शान्त करने के लिए आते हैं ।
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